Tuesday 26 July 2016

डॉक्टर कलाम की बरसी : उनसे जुडी यादें

डॉक्टर ऐ पी जे अब्दुल कलाम साहब हमारे देश के ऐसे नायाब हीरे थे जिन्हें हर कोई प्रेम करता था। आज उनकी पुण्य तिथि पर उनके पैतृक निवास रामेश्वरम में उनके स्मारक को प्रधानमंत्री ने देश के युवाओं को समर्पित कर उनकी याद और उनके आदर्शों को सदैव के लिए लोगों के मन में संजो दिया।
कलाम साहब न केवल एक महान वैज्ञानिक, प्रखर वक्ता, विचारक,  दार्शनिक, शिक्षा विद एवं भारत रत्न थे अपितु एक उदार व पवित्र हृदय के स्वामी भी थे। मुझे इस बात का फक्र है मुझे ईश्वर ने इस महान आत्मा से छह बार मिलवाया। इनसे मिल हमेशा ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी दिव्य आत्मा से साक्षात्कार हो रहा है। अपनी ऐसी ही कुछ यादों को ब्लॉग में समेट कर सहेजा है आपके साथ सांझा कर रहा हूँ। 
डाक्टर कलाम की आज दूसरी  बरसी है आज का ब्लॉग उनकी यादों को समर्पित है जो उन्होंने हमें आशीर्वाद के रूप में हमें दी. हम सौभाग्यशाली हैं उनका सानिध्य और आशीर्वाद हमें मिला.
डॉ कलाम जब देश के 11वें राष्ट्रपति बनें तो एक आम भारतीय की तरह मैं भी उनके बारे में बहुत ज़्यादा नहीं जानता था पर राष्ट्रपति पद पर रहते हुए उनके नेक कार्यों ने उन्हें एक असाधारण राष्ट्रपति के रूप में परिवर्तित कर दिया जिसने सही मायनों में लोगों के दिलों पर राज किया. इन्हीं सभी वजहों से वो एक आम आदमी के राष्ट्रपति या फिर बच्चों के राष्ट्रपति भी कहलाए। जल्द ही अपनी मेहनत, लगन और सरल स्वभाव से वो लोगों के दिलों में घर कर गए. शायद विरला ही कोई व्यक्ति होगा जो उनसे मिल कर उनकी शख्सियत से प्रभावित ना हुआ हो। धीरे धीरे डॉ कलाम भारतीय मानस पटल के एसे ध्रुव तारे के रूप में स्थापित हो गए जहाँ पर किसी और का पहुँचना असंभव है। मैं तो उनको “आधुनिक युग के विवेकानंद” के रूप में जानता हूँ।
सितम्बर 2004 में मैं अपनी पत्नी तथा पुत्री के साथ मसूरी घूमने गया हुआ था कि तभी पता चला कि डॉ कलाम मसूरी में लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकैडमी ऑफ एड्मिनिसट्रेशन में लेक्चर देने आए हुए हैं और शीघ्र ही उनका काफिला यहाँ से निकलेगा। मैं भी जनता के बीच सड़क किनारे अपनी पुत्री को गोद में उठाए उनके दर्शनों का बेताबी से इंतज़ार करने लगा। कुछ ही देर में उनकी कार बिलकुल मेरे आगे से निकली और हमारी आँखें टकराई और उनकी चिर परिचित मुस्कान का मैं भी कायल हो गया। 2008 में अपने रामेश्वरम दौरे के दौरान उनके पैतृक निवास स्थान के दर्शन करने का मौका मिला। एक दिन 2011 में मेरे एक मित्र मुकेश जो कि उस समय अहमदाबाद हवाई अड्डे पर टर्मिनल मैनेजर के पद पर नियुक्त थे उन्होनें मुझे फोन कर के बताया कि आजकल डॉ कलाम अक्सर अहमदाबाद आते हैं, आई॰आई॰एम॰/अहमदाबाद में लेक्चर देने और उनसे मुकेश की तीन चार बार निजी तौर पर भेंट हो चुकी थी तभी से मेरे दिमाग में आया कि क्यूँ न हम भी एक बार उनसे निजी मुलाक़ात का सौभाग्य प्राप्त कर लें और फिर मैंने उनसे मुलाक़ात करने का प्रयास शुरू किया और अंततः हमारी वी सी आर सी की बीसवीं वर्षगांठ पर हमारे रेलवे के डेलीगेट्स को उनसे मुलाक़ात का सौभाग्य प्राप्त हो ही गया।
हम सभी में बहुत जोश था कि आज डॉ कलाम जैसी शख्सियत से मिलने का मौका मिलेगा। इस मुलाक़ात से जीवन में एक नया आयाम स्थापित हुआ। तय तारीख 19 सितम्बर को शाम करीब 6:30 बजे हम सब 10 राजाजी मार्ग, जो कि उनका अधिकारिक निवास स्थान था, पर पहुँच गए। इस बैठक में पूरे भारत वर्ष से वी॰सी॰आर॰सी॰ आए हुए थे। हम सब उनके अतिथि कक्ष में बैठ गए। यह वही कमरा था जिसमें डॉ कलाम लोगों से मिला करते थे। उनके इंतकाल के बाद उनके पार्थिव शरीर को भी अंतिम दर्शनों के लिए इसी कमरे में रखा गया था। जिस दिन शिलांग से उनके पार्थिव शरीर को उनके आवास पर लाया गया तो उस दिन मैं भी वहीं मौजूद था, मुझे उनके अंतिम दर्शन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हो गया। बहुत ही भावुक क्षण था वो। अचानक ही वो सारे दृश्य मेरे मानस पटल पर उमड़ आए जब मैं पहली बार उनसे इस कमरे में मिला था और उसके बाद तो कई बार ऐसे अमूल्य क्षण मेरे जीवन में आए।
19 सितंबर, 2011 की उस शाम हम सब कलाम साहब की प्रतीक्षा में बैठे थे और तब तक ये यकीन नहीं हो रहा था कि वाकई आज हम कलाम साहब जैसी महान हस्ती से मिलने वाले हैं। तभी मुख्य दरवाजे से अपनी चिर परिचित मुस्कान बिखेरते डॉ कलाम ने प्रवेश किया । एक बारगी तो आँखों को विश्वास ही नहीं हुआ। कार्यक्रम को संचालित करने की ज़िम्मेदारी मुझे दी गई थी । उन्होनें आते ही मुझसे डेलीगेशन के बारे में पूछा । मैंने उन्हें बताया कि मैं पढ़ कर कुछ बताना चाहता हूँ जिससे आपको सब साफ़ हो जाएगा। वह बोले कि मैं आपको 60 सेकण्ड्स का समय दे रहा हूँ इसको तुरंत पढ़ डालो। मैंने तुरंत ही आदेश का पालन करते हुए ही तय समय सीमा में वी॰सी॰आर॰सी॰ समुदाय का परिचय दिया और वो परिचय को जान कर अत्यंत प्रसन्न हुए। एक समानता जो वी॰सी॰आर॰सी॰ के सदस्यों और डॉ कलाम में थी कि दोनों ही अत्यंत साधारण मध्यम वर्गीय पारिवारिक श्रेणीओं से आते हैं। औपचारिकताओं के बाद सभी सदस्यों ने अपना व्यक्तिगत परिचय दिया और फिर डॉ कलाम ने बोलना शुरू किया और बताया कि उनका सबसे बड़ा सपना है भारत को विकसित राष्ट्र के रूप में स्थापित होते देखना।
उन्होने सपना देखा कि भारत को हर हाल में वर्ष 2020 तक एक विकसित राष्ट्र के रूप में स्थापित करना है, और इसके लिए हर भारतवासी को कड़ी मेहनत करनी होगी। उनकी एक बात आज भी सदा मेरे दिमाग में गूँजती रहती है कि कभी यह मत सोचो कि मेरा देश मुझे क्या दे सकता है!! अपितु यह सोचो कि तुम देश को क्या दे सकते हो। ईमानदारी और मेहनत से बड़ा कोई कभी नहीं । एक महान कर्मयोगी ने अपने अनुभवों से हमारा मार्ग दर्शन किया। निजी तौर पर मेरे लिए वो मुलाक़ात एक टर्निंग पॉइंट साबित हुई, जीवन को जीने और देश के बारे में सोचने का दृष्टिकोण बदल गया और मेरे काम करने की शैली में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। आज भी मेरे घर और कार्यालय में डॉ कलाम की तस्वीर टंगी हुई है जो रोज़ मुझे, मेरे देश के प्रति कर्तव्य को याद दिलाती है। मेरी भी यही इच्छा है कि अंतिम सांस तक देश की बेहतरी के लिए काम करूँ और कुछ ऐसा करूँ कि जब इस दुनिया से विदा लूँ तो मेरे शव को भी तिरंगे में लपेटा जाए।
उस दिन बहुत से मुद्दों पर बहुत खुल कर चर्चा हुई और उन्होनें भी हर सवाल का जवाब बहुत बेबाकी और पूरी ईमानदारी से दिया। उस मुलाक़ात के बाद मुझे लगभग सात बार और उनसे मुलाक़ात का सौभाग्य मिला और जब जब मिलता ऐसा लगता, मानो, ईश्वर के पुत्र से मिल रहा हूँ । उनके पास बैठने से ही लगता था कि चारों ओर पॉज़िटिव वाइब्स निकल रही हैं और हम सब एक अत्यंत पवित्र आत्मा के साथ बैठे हैं। उनके जन्मदिन, 15 अक्तूबर पर जाना तो एक रवायत बन गई थी।
मार्च 2013 में कलाम साहब जब दिल्ली मेट्रो में आए तो उस दौरे में भी उनके साथ रहने का सौभाग्य मुझे मिला। एक जिज्ञासु बच्चे की तरह हर चीज़ के बारे में पूरी उत्सुकता से पूछना उनकी आदत थी और खास बात यह थी कि वे फिर कभी उन बातों को जीवन में भूलते नहीं थे । मेरी उनसे अंतिम मुलाक़ात फरवरी 2015 में हुई जब मैं अपनी नई पुस्तक “अतुल्य भारत कि खोज” की पहली प्रति उनको भेंट करने कि लिए गया। उन्होनें मुझसे पूछा कि “तुम्हारी एयरपोर्ट लाइन की राइडरशिप कितनी हो गई है और अब एयरपोर्ट लाइन का घाटा कम हुआ कि नहीं?” उनकी यह जिज्ञासा देख कर मैं चकित रह गया कि उन्हें हमारी एयरपोर्ट लाइन की भी चिंता थी। रात के करीब आठ बज चुके थे , उन्होनें मेरी किताब के कंटैंट के बारे में पूछा और खुश हुए कि मैंने ऐसे विषय पर किताब लिखी है जिसमे देश के विभिन्न हिस्सों कि जानकारी है। कलाम साहब लक्षद्वीप को छोड़ भारत के हर राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों में गए थे और जहाँ तक मुझे ज्ञात है ऐसा करने वाले वो एक मात्र राष्ट्रपति हुए हैं। तैयारी तो लक्षद्वीप की भी थी पर जब कोची से हेलीकाप्टर में बैठने लगे तो मौसम बहुत ज्यादा खराब हो गया और दौरा रद्द करना पड़ा। मुझे क्या पता था कि वो मुलाक़ात उनसे आखिरी मुलाक़ात साबित होने वाली थी। ईश्वर उस पुण्य आत्मा को पुनः भारत भूमि पर भेजे ऐसी कामना है मेरी और मैं समस्त वी॰सी॰आर॰सी॰ परिवार से आह्वान करता हूँ कि आइये हम सब शपथ लें कि हम सदा ही डॉ कलाम के दिखाए रास्तों पर चलेंगे और देश कि बेहतरी के लिए जी जान से काम करेंगे।






Monday 25 July 2016

कारगिल विजय दिवस : मेरी कारगिल यात्रा की यादें
















मेरे प्रिय मित्रों,
सादर नमस्कार !!!
कल कारगिल विजय दिवस है, यानी की देश के इतिहास का वो गौरवशाली दिन है जब हमने अपने दुश्मन को उसके धोखे और गददार्री का मुँह तोडा जवाब दिया था. ये दिन है अपने वीर जवानों को याद करने का और उनको श्रद्धांजलि देने का जिन्होंने हँसते हँसते देश पर आपके और हमारे लिए अपनी जान न्यौछावर कर दी. मुझे आज भी वो पल याद आता है जब में 23 जुलाई 1999 को अमरनाथ की यात्रा पर था और अभी भी कारगिल युद्ध खत्म होने में तीन रोज़ बाकी थे. पर उस समय में वहां नहीं जा सका, फिर अंत: वो पावन दिन आ गया जब मुझे इस महातीर्थ के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हो ही गया यानि की जुलाई 2007 में. 
लेह में युद्ध स्मारक पर श्रधांजलि अर्पित कर हम कारगिल की ओर निकल पड़े थे, रास्ते में सबसे पहले एक स्थान आया “बटालिक”  यहीं कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय शहीद हुए थे. उन्हें इस युद्ध कौशल और बहादुरी के लिए परमवीर चक्र से नवाज़ा गया था. सबसे पहले उनको श्रधान्जली दी. थोड़ी ही देर में कारगिल पहुँच गए. हम उस सड़क से गुजर रहे थे जहाँ से पाकिस्तानी हमें देख सकते थे. हमारे लिए ऐसा पहला अनुभव था. कारगिल का मुख्य युद्ध यहाँ से 60 किलोमीटर आगे द्रास में लड़ा गया था. हम कारगिल होते हुए द्रास पहुँच गए. उस रोज़ मौसम खुला ना होने के कारण बादल बहुत ज्यादा थे। शायद इसी कारण टाइगर हिल का दीदार होने में लगातार विलंब होता जा रहा था।
सबसे पहले हमने वो स्थान देखा जहां कारगिल युद्ध के दौरान बोफोर्स गोले दागा करती थी और बरखा दत्त भी इसी स्थान से कई बार रिपोर्टिंग करती थी। मैंने सबसे पहले मन ही मन कैप्टन विक्रम बत्रा को श्रद्धांजली दी। जम्मू कश्मीर राइफल्स के कैप्टन विक्रम बत्रा जो अपनी जांबांजी के कारण कारगिल युद्ध में अपनी अमिट छाप छोड़ गए और उनकी इसी जांबाजी और अभूतपूर्व शौर्य के लिए परमवीर चक्र से नवाजा गया । उनका एक इंटरव्यू बहुत प्रसिद्ध हुआ था जिसमे उन्होने कहा था “ये दिल मांगे मोर”, वो इंटरव्यू इसी जगह पर हुआ था। पाकिस्तानी सैनिक भी उनके नाम से कांपते थे उनका नाम उन्होने शेहंशाह रखा हुआ था। थोड़ी ही देर में हमने मशकोह घाटी में प्रवेश किया। अपने अप्रतीम सौन्दर्य के लिए मशहूर इसी घाटी में दिल्ली के जनकपुरी के रहने वाले और जाट रेजीमेंट के कैप्टन अनुज नय्यर ने अपने प्राण न्योछावर किए थे । मरने से पहले इन्होंने नौ  पाकिस्तानियों को मौत के घाट उतारा। इन्हे मरणोपरांत महावीर चक्र प्रदान किया गया। मेजर विवेक गुप्ता का भी जिक्र करना बहुत आवश्यक है तोलोलिंग को फ़तेह करते हुए वो शहीद हो गए. अगले दिन जब उनका पार्थिव शरीर दिल्ली में  लाया गया तो तो उनकी पत्नी जो की स्वयं एक आर्मी ऑफिसर हैं डॉक्टर राजश्री गुप्ता उनको वर्दी में अंतिम प्रणाम या सलामी देने आई . ऐसे भावुक क्षण पर एक पत्नी का इस तरह अपने पति के पार्थिव शरीर को सलामी देने आना उनकी कर्त्य परायणता, सोच, द्रिड निच्च्यता और सहास को दर्शाता है. मैं डॉक्टर राजश्री के जज्बे को हज़ार बार सलाम करता हूँ और वो चित्र जो उन दिनों इंडिया टुडे में छपा था वो में ताउम्र नहीं भुला सकता हूँ. 
इस युद्ध में जब 2, राजस्थान राइफल्स के लेफ्टिनेंट विजयंत थापर को भेजा तो उन्होंने अपने माँ बाप को एक पत्र लिखा था जिसमे उन्होंने कहा था की जब तक यह पत्र उनके पास पहुंचेगा तो स्वर्ग की अप्सरायें उनकी सेवा कर रही होंगी. शायद उनको ये एहसास हो गया था की वो वहां से कभी वापिस नहीं आयेंगे. और हुआ भी यही. उन्होंने दो बहुत अहम् बातें उसमे लिखी एक की उनको मरने का कोई ग़म नहीं है, यद्यपि वो चाहते हैं की अगर उनका दुबारा जन्म हो तो वो पुन: सेना में भर्ती हो देश की सेवा करना चाहेंगे, दुसरे वो चाहते थे की लोग कारगिल में आ कर देखें की कैसे सेना के लोगों ने उनके कल को बचने के लिए अपना आज समर्पित कर दिया. विजयंत थापर एक सैनिक परिवार से आतें हैं, इनके पिता जी और दादा जी दोनों ही ने सेना की और से देश की सेवा की है. नॉएडा के रहने वाले विजयंत के नाम पर एक मुख्य मार्ग का नामकरण किया गया है “शहीद विजयंत थापर मार्ग”. 29 जून को वो शहीद हुए थे और इसी बीती त़ारीख को मुझे उनके नॉएडा आवास पर उनके वीर माता पिता जी से मुलाकात का सौभाग्य मिला. धन्य हैं ऐसे माँ बाप जिन्होंने ऐसे वीर को जन्म दिया.
इस युद्ध में योगेंदर सिंह यादव और राइफल मैन संजय सिंह को भी परम वीर चक्र प्रदान से सम्मानित किया गया. वायु सेना के अजय आहूजा जी को वीर चक्र से समान्नित किया गया. लंच के बाद हम लोग द्रास वार मेमोरियल देखने गए । वहाँ युद्ध में शामिल हुए सैनिकों के एवं हथियार प्रदर्शित किए गए हैं।
 द्रास ही एक ऐसी जगह है जहाँ एक बार तापमान शून्य से 54 डिग्री नीचे चला गया था वो तारीख थी नौ जनवरी 1995  और यह सोच कर तो कंपन ही होने लगती है के युद्ध के दौरान ठंडी रातों में हमारे सैनिक कैसे लड़े होंगें। यह सोच कर सिर श्रद्धा से झुक जाता है। अंततः टाइगर हिल का दीदार हो ही गया। टाइगर हिल भारत के गौरव का प्रती है। इस पर कब्जा करना हमारे लिए इसलिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण था क्योंकि वहाँ बैठ कर पाकिस्तानी राष्ट्रिय राजमार्ग 1 को बाधित कर सकते थे और समय रहते हम कब्जा नहीं करते तो लेह और फिर सियाचिन क्षेत्र को भी पाकिस्तान से खतरा  हो सकता था। अगले दिन सुबह हम लोग काम्प्लेक्स 43 को देखने गए. ये काम्प्लेक्स LOC पर है जहाँ से पाकिस्तानी सिपाही अपनी चोव्कियों पर साफ़ तौर पर देखे जा सकते थे. ये भी अपने आप में यादगार अनुभव था.

हमें हर हाल में ये सुनिश्चित करना होगा की हम कभी भी अपने वीर जवानों की शहादत को विस्मृत न करें. उनको याद करते रहे उनके परिवारों को समय समय पर मिलते रहे. कारगिल के सभी शहीदों को शत शत नमन.  

Saturday 23 July 2016

भारतीय वायु सेना म्यूजियम और युद्ध स्मारक, पालम, नई दिल्ली

नमस्कार मित्रों

आज मैं आपको दिल्ली में स्थित भारतीय वायु सेना का म्यूजियम दिखाने ले चलता हूँ ये पूरे भारत वर्ष में अपनी तरह का अनूठा म्यूजियम है जिसमे भारतीय वायु सेना की स्थापना जो की 1932 में हुई थी, तब से ले कर आज तक इस्तेमाल होने वाली वर्दी, कई सारी एतिहासिक फ़ोटो, हथियार, शहीदों की जानकारी और सबसे महत्वपूर्ण वो हवाई जहाज़ भी रखे गए हैं जिनका इस्तेमाल प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ग, 1962, 1971 और 1999 के भारत पाकिस्तान युद्धों के दौरान हुआ था जैसे की डगलस, नॉट, कैनबरा और मिग ।

यहाँ भारत द्वारा पाकिस्तान के तबाह किये गए हवाई जहाजों के टुकड़े भी रखे हुए हैं।

भारतीय वायु सेना के एक मात्र परमवीर चक्र विजेता  निर्मल जीत सिंह सेखों जी द्वारा उड़ाया गया जहाज़ और उनकी मूर्ति देख कर सर श्रद्धा से झुक गया। इसके प्रांगण में युद्ध स्मारक भी है जहाँ शहीदों को श्रधांजलि अर्पित की।

वायु सेना का ये म्यूजियम देख कर वाकई बहुत अच्छा लगा और गर्व की अनुभूति हुई की भारतीय वायु सेना ने देश के लिए अभूतपूर्व काम किया है।

हमें गर्व है भारतीय वायु सेना के जांबाज़ सैनिकों पर।

Monday 18 July 2016

शहीद सुखदेव थापर का जन्मस्थान, सरबजीत और अमृतसर
















नमस्कार मित्रों

सादर नमस्कार !!

आज मैं पुन: उपस्थित हूँ आपको भारत की एक नई जगह के दर्शन करवाने के लिए. आज मै आपको ले कर चल रहा हूँ अमर शहीद सुखदेव थापर के जन्मस्थान यानि की उनके पुश्तैनी मकान जो की लुधियाना शहर में चोडा बाज़ार के नौ घरा क्षेत्र में बना हुआ है. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को भला कौन हिन्दुस्तानी नहीं जानता इनकी शहादत के कर्ज़दार हम सभी हैं. सुखदेव के घर के बाद मैं आपको भगत सिंह और राजगुरु के घरों के भी दर्शन जल्द ही करवाऊंगा. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव तीनों न केवल अभिन्न मित्र थे अपितु देश पर मर मिटने का जज़बा भी इन तीनों में बराबर भरा हुआ था. भगत सिंह की ही भांति मात्र 23 वर्ष की आयु में फांसी का फंदा चूमने वाले सुखदेव को मेरा शत शत नमन. आप भी कभी लुधियाना जायें तो इस पावन तीर्थ पर सीस नवाने अवश्य जाएँ.

लुधियाना से निकल कर हम गए 1965 की भारत पाकिस्तान का एक मुख्य केंद्र रहे “असल उत्तर और खेमकरण” गए जिसके बारे में एक अलग ब्लॉग में लिखुंगा. खेमकरण होते हुए जब में अमृतसर जा रहा था तो रास्ते में एक गाँव आया भिखीविंद जहाँ कभी “सरबजीत” रहा करता था. उनकी बहन दलबीर कौर जी ने सरबजीत को बचाने की पुरजोर कोशिश की पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था. वर्ष 2013 में सरबजीत की लाहौर के कोट लखपत जेल में हत्या कर दी गयी. सरबजीत पिक्चर देखने के बाद मेरा बहुत मन था की मै उस बहन से मिलूं जिसने 22 साल तक उम्मीद नहीं छोड़ी और देश विदेश में भी भाई के हक़ के लिए लडती रही. मै सरबजीत के घर पहुँच गया पर दुर्भाग्यवश उनका परिवार जालंधर के लिए निकला हुआ था. वहां हमें सरबजीत की साली साहिबा मिली जिन्होंने बताया की सरबजीत पर पिक्चर आने के बाद आज कल बहुत लोग उन्हें मिलने आने लगे हैं.

यहाँ से हम अमृतसर आ गए जहाँ मेरी मुलाकात मेरे कई पुराने मित्रों से हुई यहाँ सबसे पहले जालिंयावाला बाग में श्रधांजलि अर्पित की और फिर गुरु घर यानि की स्वर्ण मंदिर में जा कर मत्था. अमृतसर की सबसे बड़ी पहचान सिखों के सबसे बड़े गुरूद्वारे और तीर्थ स्थल “स्वर्ण मंदिर” की वजह से है जहाँ दुनिया भर से हर समुदाय के लाखों लोग अपना शीश झुकाने आते हैं. इसे हरमंदिर साहिब भी कहा जाता है, हरमंदिर साहिब की नीव सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव जी ने दिसंबर, 1588 , में लाहौर के एक सूफी संत हजरत मियां मीर जी से रखवाई थी.1604 में गुरुद्वारा बन कर तैयार हो गया. यहाँ का लंगर स्थल दुनिया भर में प्रसिद्द है जहाँ चौबीसों घंटे लाखों लोगों के लिए लंगर का वितरण चलता रहता है. ये एक अजूबे से कम नहीं है.

19 वी शताब्दी में अफ़ग़ान हमले में हरमंदिर साहिब को काफी क्षति पहुंची, महाराजा रणजीत सिंह इसको पुन: बनवाया और सोने से इसको मडवा दिया और तभी से इसको एक और नाम मिला स्वर्ण मंदिर. 400 वर्ष पुराने इस गुरूद्वारे का नक्शा गुरु अर्जुन देव जी ने स्वयं तैयार किया था. यहाँ प्रवेश के लिए चार दरवाजे हैं जो चारो दिशाओं से खुलते हैं और उस समय समाज चार जातियों में विभक्त था यह चारों दरवाज़े हर जाती के व्यक्ति का स्वागत करते हैं, यहाँ कोई भेदभाव नहीं है.

स्वर्ण मंदिर से बिल्कुल सटा हुआ है जालियांवाला बाग . भारत का इतिहास जालियांवाला बाग के बारे में लिखे बिना सदैव अधुरा ही रहेगा. भारत के स्वतंत्रा आन्दोलन में इतना बड़ा और जघन्य हत्याकांड कभी भी कहीं भी अंग्रेज सरकार ने नहीं किया. इस बर्बर्पुरण कृत्य के लिए हिंदुस्तान कभी भी अंग्रेजी हुकूमत को माफ़ नहीं कर सकता. वैसे तो समय समय पर कई सारे घाव गोरी सरकार हिन्दुस्तानियों को देती रही पर ये ज़ख्म नहीं नासूर दी दिया जिसकी पीड़ा को आज भी हम महसूस करते हैं. यहाँ जा कर हर हिन्दुस्तानी की आँख नाम हो जाती है और मन में क्रोध की अग्नि प्रव्ज्वालित हो जाती है जब हम दीवारों पर बने गोलियों के निशानों को देखते हैं. ऐसा लगता है गोलियों के निशान दीवारों पर नहीं अपितु किसी ने हमारे दिल की दीवारों को कुरेद कर बना दिए हैं. हमारे स्वतंत्रा संग्राम का ये महानतम प्रतीक एक महातीर्थ है

अमृतसर शहीद क्रन्तिकारी मदन लाल ढींगरा और उधम सिंह का गृह नगर भी है. इन दोनों के आदम कद के बुत यहाँ लगे हुए हैं जो आज भी इनके त्याग की याद दिलाते हैं. इसके अलावा यहाँ हिन्दुओं का विश्व प्रसिद्द दुर्गियाना मंदिर भी है. यहाँ राम तीर्थ  भी है जहाँ बाल्मीकि जी का आश्रम था और लव और कुश का जन्म भी यहीं हुआ था. कहा जाता है लव के नाम पर “लाहौर” और कुश के नाम पर “कसूर” का नामकरण हुआ था. अब ये दोनों ही स्थान पाकिस्तान में चले गए हैं. इसके अलावा अमृतसर अपने खान पान के लिए बहुत विख्यात है.  यहाँ हर प्रकार लाजवाब खाना मिलता है जो विश्व प्रसिद्द है. और वाघा बॉर्डर पर रोजाना होने वाली फ्लैग सेरेमनी को भी जरूर देखें.


तो आप कब जा रहे हैं इस ऐतिहासिक शहर को देखने. 

Wednesday 13 July 2016

1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध का एक केंद्र : लोंगेवाला और तनोत माता

प्रिय मित्रों

सादर नमस्कार !!

आज मैं पुन: उपस्थित हूँ, आपको भारत की एक ऐसी जगह दिखाने जो 1971 की भारत और पाकिस्तान की जंग के दौरान बहुत चर्चा में रही और उस जगह का नाम है लोंगेवाला. 4 से 7 दिसम्बर 1971 के बीच इस युद्ध को इस स्थान पर अंजाम दिया गया. हुआ यूं के युद्ध के दौरान आज भारत का ध्यान पूर्वी मोर्चे यानि की बांग्लादेश से हटाने के लिए पाकिस्तान ने जैसलमेर से आगे लोंगेवाला की और अपनी सेना शुरू को बढाना शुरू कर दिया. उस समय लोंगेवाला सेक्टर में भारत के केवल 120 सैनिक ही तैनात थे और पाकिस्तान के पास थे चीन द्वारा दिए गए 45 टी 59 टैंक और 2000 सैनिकों की विशाल सेना, पर हौसले भारतीय जवानों के ही बुलंद थे.

पंजाब रेजिमेंट की और से मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी नियुक्त थे और यहाँ से 17 किलोमीटर आगे साडेवाला में लेफ्टिनेंट धरमबीर की तैनाती थी. पाकिस्तानी सेना ने रात को धावा बोला था और रात में वायु सेना का प्रयोग नहीं हो सकता था। अतः यह बहुत जरूरी था के किसी तरह रात में पाकिस्तानी सेना को सुबह तक रोके रखे. अगर चांदपुरी पाकिस्तानी सेना को नहीं रोक पाते तो वो सुबह होने से पहले ही जैसलमेर हवाई पट्टी तक पहुँच जाते और फिर जो काम वायु सेना ने अगले दिन कर के दिखाया था वो शायद कभी कर के नहीं दिखा सकती थी, क्योंकि हवाई पट्टी ही अगर धवस्त हो जाती तो क्या करता. इसीसे आप इस कार्य के महत्व का अंदाज़ा लगा सकते हैं.
बीएसफ के जवानों के साथ रेगिस्तान की सैर 

तनोत माता मंदिर में सुबह की आरती करते बीएसफ के जवान 

बम्ब जो पाकिस्तान ने फेंके पर तनोत माता की कृपा से फटे ही नहीं 

तनोत माता मंदिर परिसर 

पाकिस्तानी टैंक जो हमने धवस्त कर दिया 


भारत के परमाणु परीक्षणों की भूमि- पोखरण 




भारत पाकिस्तान को विभाजित करती कंटीली तारे 

जय हो तनोत माता जी की 



भारत पाकिस्तान अंतिम सीमा चोकी के टावर पर 
अपनी वीरता और शौर्य के दम पर 23 पंजाब रेगिमेंट ने इस काम को कर दिखाया और अपने इसी साहसिक कारनामों की वजह से मेजर कुलदीप चांदपुरी को महावीर चक्र प्रदान किया गया। इस युद्ध में भारतीय वायु सेना ने कमाल कर दिया फ्लाइट लेफ्टिनेंट बावा ने अपने साथियों के साथ मिल कर विमानों से ऐसी अचूक बमबारी की जिससे दुश्मन हिल गया. चंद घंटों में ही वायु सेना पूरे युद्ध की तस्वीर पलट कर रख दी. पाकिस्तान जहाँ अपने 2000 सैनिकों के दम पर नाश्ता लोंगेवाला, दोपहर का खाना रामगढ, और रात्री भोजन जैसलमेर में करने के मंसूब्वे बना रहा था उनको वायु सेना के जांबाज़ सिपाहियों ने चकनाचूर कर दिया. पाकिस्तान ने सपने में भी नहीं सोचा था के चीन से मिले शक्तिशाली टी 59 टैंक को भारतीय वायु सेना पल में ही दो फाड़ कर देगी. भारतीय सैनिकों की बहादुरी ने पाकिस्तान के 34  टैंक नेसतोनाबूद कर दिये। मशहूर फिल्म निर्माता जे॰पी॰दत्ता ने 1971 की जंग पर एक फिल्म बनाई थीबार्डर जिसकी सारी कहानी यहीं पर आधारित थी।  इस फिल्म में जो किरदार सन्नी दियोल ने निभाया है असल ज़िंदगी में वो मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी ने निभाया था। अपनी अभूतपूर्व वीरता के दम पर उन्होनें पाकिस्तान के दाँत खट्टे कर दिये थे।

युद्ध स्मारक लोंगेवाल 
मैंने यहाँ अगर तनोत माता क्षेत्र का जिक्र न किया गया तो वाकया अधूरा रह जायेगा. सीमा के पास ही तनोत माता का मंदिर है और माँ की कृपा से इस परिसर में पाकिस्तानियो ने जितने भी बम्ब गिराए एक भी नहीं फटा वो बम्ब आज भी जस के तस मंदिर में रखे हुए हैं. यहाँ नियुक्त बॉर्डर सिक्यूरिटी फाॅर्स के जवान यही मानते हैं की ये सब माता की कृपा थी जिससे उनकी और सभी क्षेत्र वासियों की जान बच पाई. यहाँ माता के मंदिर की साड़ी व्यवस्था बी एस ऍफ़ के जवान ही करते हैं. इसी प्रांगन में एक विश्राम गृह भी है जहाँ बी एस ऍफ़ के मेहमान आ कर ठहरते हैं. ऐसा सौभाग्य मुझे भी वर्ष 2012 में प्राप्त हुआ. हमने रात्रि विश्राम इसी प्रांगन में किया और सुबह पांच बजे होने वाली सुबह की पहली आरती में समिल्लित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. वहां मौजूद सैनिकों ने हमें विस्तार से 1971 के युद्ध के वाक्य सुनाये और वो बम भी दिखाए जो तनोत माता  जी की कृपा से फटे नहीं.

 नाश्ता करके हम अंतराष्ट्रीय सीमा पर पहुँच गए जो नोट माता मंदि से मात्र 12 कि॰मी॰ की दूरी पर है। बहुत तसल्ली से अंतराष्ट्रीय सीमा का अध्ययन किया और स्थानीय सैनिकों से बातचीत की। यहाँ आने के लिए बीएसफ से विशेष अनुमति लेनी पड़ती है. राजस्थान के रेतीले क्षेत्र से अंतराष्ट्रीय सीमा को देखना का यह पहला और अनूठा अनुभव  था। टावर पर चढ़ कर दूरबीन द्वारा भी मैंने पाकिस्तानी सीमा में देखा। वहाँ भी कुछ सैनिक दिखाई दिये। इसके पश्चात हम लोंगेवाला सेक्टर में आ गए जहाँ हमने युद्ध समरक पर शहीदों को श्रद्दा सुमन अर्पित किए. भारत द्वारा नेतोनाबूद किये गए टी ५९ टैंक आज भी यहाँ रखे हुए हैं . इन पर चढ़कर बड़े फक्र के साथ हमने चित्र खिंचवाए. ये जगह वाकई देखने लायक है. तो कब आ रहे हैं आप- लोंगेवाला और तनोत माता जी के दर्शन करने.