नमस्कार मित्रों !!!
“हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं के ग़ालिब का है, अंदाज़े बयां ओर”
अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि आज मैं किस शख्सियत की बात करने वाला हूँ!!! जी हाँ दोस्तों, आज उर्दू और फारसी के मशहूर कवि एवं शायर मिर्ज़ा असद उल्ला
खां “ग़ालिब” साहब का जन्मदिन है. ग़ालिब साहब अपने दिलकश अंदाज़ और रूह को गहराई तक
छूने वाली शायरी के लिए पूरी दुनिया में विख्यात हैं. इनका जन्म 27 दिसम्बर 1797
को आगरा में हुआ और वर्ष 1812 में ये दिल्ली के बाशिंदे हो गए. अपनी काबिलियित के
दम पर उन्होंने बहादुर शाह ज़फर के दरबार में अपनी जगह बना ली. सब लोग उन्हें प्यार
से “मिर्ज़ा नौशा” के नाम से भी पुकारते थे, वैसे “ग़ालिब” भी उनका एक उपनाम था.
आज में आपको उनकी हवेली में ले कर चल रहा हूँ,
जहाँ उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के कई सारे साल गुजारे थे. चांदनी चौक के मोहल्ला
बल्लीमारान, गली कासिम जान में बनी इस हवेली को ग़ालिब स्मारक में बदल दिया गया है,
जहाँ उनके जीवन की पूरी तस्वीर दिखाई देती है. उनके द्वारा इस्तेमाल किये गए कपडे
भी यहाँ रखे गए हैं. ग़ालिब साहब का इंतकाल 15 फ़रवरी 1869 को दिल्ली में हुआ. मैं आपको
उनकी कब्र पर भी ले कर चल रहा हूँ जो निजामुद्दीन बस्ती में बनी हुई है. उनका एक
शेर यहाँ खुदा हुआ है, जो काफी मशहूर भी है :-
ना था कुछ, तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा
होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या
होता
ग़ालिब साहब ने एक बात अपने जीवन काल में ही कह
दी थी के मेरे काम की कद्र मेरे मरने के 100 साल बाद होगी, हुआ भी बिलकुल यही.
1969 में ग़ालिब शताब्दी वर्ष मनाया गया और फिर ग़ालिब की कब्र के नजदीक ही ग़ालिब
अकादमी की स्थापना हुई, उनपर फिल्में बनी और दूरदर्शन पर मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक
भी आया जो बहुत मशहूर हुआ. जगजीत सिंह साहब ने भी उनके द्वारा लिखी कई ग़ज़लों को
अपना स्वर दिया. मेरे जेहन में भी ग़ालिब साहब के लिए इतना सम्मान, ये सब सुनने और
देखने के बाद ही हुआ.
वर्ष 2014 में पहली बार मुझे उनकी हवेली और
कब्र पर जाने का मौका मिला. इसके ग़ालिब अकादमी से उनकी कुछ पुस्तकें भी खरीदी.
निजी तौर पर मुझे उनका ये वाला शेर बहुत पसंद है:-
हज़ारों खाव्हिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम
निकले
बहुत निकले मेरे अरमान मगर फिर भी कम निकले
इसके अलावा एक और शेर जो में आपके साथ साँझा
करना चाहूँगा :-
हर एक बात पे कहते हो तुम, के तू क्या है
तुम ही कहो के ये अंदाज़े गुफ्तुगु क्या है.
1857 की क्रांति के बाद उनकी पेंशन बंद हो गयी
और फिर उनके दिन मुफ़लिसी में कटे. पर इस बात से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता कि, ग़ालिब
साहब अपनी अज़ीम फनकारी के दम पर हमेशा हमारे जेहन में बसते रहेंगे. उनके जन्मदिन
पर उनको भाव भीनी श्रधांजलि.
आज के ब्लॉग की समाप्ति उनके इस शेर के साथ
करना चाहूँगा:-
मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ, कि फिर आ न सकूँ