Sunday 30 December 2018

दर्शन धनुषकोटि के, यहाँ से रामेश्वरम के लिए पुनः चलेगी रेल गाड़ी


प्रिय मित्रों

सादर नमस्कार

बीते सप्ताह रेल मंत्रालय ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय लिया है, पता नहीं आपने ध्यान दिया है या नहीं, वो निर्णय है रामेश्वरम तक जाने वाली गाड़ी को धनुषकोटि तक पुनः स्थापित करने का। अब ये महत्वपूर्ण इस लिए है क्यूंकी  “धनुषकोटि” जो की सुदूर दक्षिण में स्थित है, ये वही स्थान है जहां से राम सेतु की शुरुआत होती है। आज मैं आपको ब्लॉग के माध्यम से धनुषकोटि के बारे में विस्तार से जानकारी दूंगा।  वर्ष 2010 में मुझे रामेश्वरम् जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, इसी यात्रा के दौरान मैं धनुषकोटि तक गया।

जो की रामेश्वरम् से 19 कि.मी. की दूरी पर है । 1964 में आए समुद्री तूफान ने यहाँ के भूगोल को सदा सदा के लिए बदलकर रख दिया। इस तूफान में धनुषकोटि स्टेशन पूरी तरह बरबाद हो गया था और पटरियाँ तक उखड़ गई थीं। आज भी उखड़ी हुई पटरियाँ रामेश्वरम् और धनुषकोटि के बीच में पड़ी हुई  देखी जा सकती हैं। यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि 1964 तक गाड़ी मद्रास एग्मोर (अब चेन्नई एग्मोर) से धनुषकोटि तक जाती थी। ऐतिहासिक पंबम पुल रामेश्वरम् को मुख्य भारत से जोड़ता है । पंबम पुल देश का एकमात्र ऐसा पुल है, जो समुद्र से गुजरनेवाले बड़े जहाजों को रास्ता देने के लिए खुल जाता है। इसका निर्माण 1914 में हुआ था। 1964 के तूफान ने इसको भी बुरी तरह से हिला दिया था, परंतु भारतीय रेल की इंजीनियरिंग टीम (जिसका नेतृत्व डॉ. श्रीधरन कर रहे थे) ने 45 दिनों के रिकॉर्ड समय में ही पुल को ठीक कर दिया था। 

सन् 1964 के तूफान ने हज़ारों जानें ले ली थीं। एक पूरी की पूरी यात्री गाड़ी जो मद्रास से धनुषकोटि जा रही थी जिसमें 100 के लगभग यात्री थे, समुद्र में जा
डूबी आर सभी यात्री मारे गए। धनुषकोटि में आज सिर्फ कुछ मछुआरे परिवार ही रहते हैं। एक मंदिर जो आज जमीन में धंसा हुआ है और टूटा-फूटा रेलवे रोड तथा प्लेटफार्म आज भी यहाँ मौजूद हैं। 1964 तक लोग यहाँ तक रेलगाड़ी में आकर नावों द्वारा श्रीलंका के तल्लईमन्नार चले जाते , जो कि यहाँ से केवल 30 कि.मी. की दूरी पर है। 1964 के बाद से यह सब रुक गया। इस स्थान को अरब सागर और बंगाल की खाड़ी का संगमस्थल भी कहा जाता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए रामेश्वरम् से जीप लेनी पड़ती है, क्योंकि जमीन दलदली होने के कारण आम वाहन नहीं जा सकता।

 हिंदू शास्त्रों के अनुसार यही वह स्थान है, जहाँ से रामसेतु शुरू होता है, जिसका वर्णन पवित्र ग्रंथ 'रामायणमें भी है। इस सेतु का निर्माण श्रीरामजी ने लंका जाने के लिए किया था। रामसेतु होने के कई प्रमाण हमारे वैज्ञानिकों को भी मिले हैं । इतनी ऐतिहासिक जगह पर आने के लिए मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया। पिछली केंद्रीय सरकार इस रामसेतु से नया रास्ता निकालना चाहती थी, पर अब मोदी सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि रामसेतु एक राष्ट्रीय धरोहर है। और इससे किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जाएगी, अपितु जहाजों के लिए वैकल्पिक रूट खोजा जाएगा। जनवरी का महीना होने के बावजूद यहाँ गरमी महसूस हो रही थी। मैंने एक बुढ़िया का चित्र लिया जो वहाँ पानी बेच रही थी ।

मैंने अपने जेहन में जब रामायण काल के समय की काल्पनिक तसवीर बनाई तो एक अद्भुत अनुभूति हुई और गौरव महसूस हुआ कि हम वहाँ खड़े थे जहाँ कभी श्रीराम खड़े हुए थे। मुझे ये सुन कर अत्यंत हर्ष हुआ की रेल मंत्रालय धनुषकोटि तक पुनः गाड़ी ले कर जा रही है, चलो किसी ने तो इस ऐतिहासिक स्थल की सुध ली । ये कोई साधारण कार्य नहीं है अपितु हमारी गरिमा व आस्था से जुड़ा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो शीघ्र पूरा हो जाएगा। अब अगर सरकार यहाँ से श्रीलंका के तल्लईमन्नार के लिए जल मार्ग भी शीघ्र खोल दे तो कम से कम जो हिन्दू श्रद्धालु श्रीलंका में रामायण से जुड़े जो स्थान हैं उनके भी सुगमता व कम पैसों में दर्शन कर पाएंगे।  

























Friday 16 November 2018

अमर शहीद करतार सिंह सराभा

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आज के दिन हम स्मरण करते हैं, एक ऐसे क्रांतिकारी का जिसने 17 वर्ष की अल्पायु में गदर पार्टी की सदस्यता ग्रहण कि और आज ही के दिन यानि कि 16 नवम्बर 1915 को मात्र 19 वर्ष कि आयु में फाँसी के फंदे को सिर्फ इसीलिए चूम लिया ताकि सभी भारतवासी आज़ादी की फ़िज़ां में सांस ले सकें।
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शहीद ए आज़म भगत सिंह भी उनकी देशभक्ति से अत्यंत प्रभावित रहते थे, सराभा जी की तस्वीर वो सदा अपने सीने से लगा कर रखते थे और उनको अपना आदर्श मानते थे। आज उनकी शहादत को 103 वर्ष पूरे हो गए। तो आइए भारत माता के इस शेर को नमन करें व आज की पीढ़ी को इस महान क्रांतिकारी के प्रखर जीवन से रूबरू करवाएं।


*अमर शहीद करतार सिंह सराभा को ऋणी राष्ट्र कि ओर से शत शत नमन।*
जय हिंद।
ऋषि राज
देशभक्ति के पावन तीर्थ
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Wednesday 7 November 2018

गुरुद्वारा “दाता बंदी छोड़ साहिब”: बंदी छोड़ दिवस

कल दीपावली पर आपने गुरुद्वारों में एक विशेष चहल पहल और रोशनी की व्यवस्था को अवश्य देखा होगा। आज मैं आपको मध्य प्रदेश के ग्वालियर में स्थित गुरुद्वारा “दाता बंदी छोड़ साहिब” ले कर चल रहा हूँ, जिसका नाता दिवाली के पर्व से जुड़ा हुआ है। मुझे यहाँ वर्ष 2016 में शीश नवाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

सिख धर्म के अनुयायी दीपावली के पर्व को “बंदी छोड़ दिवस” के रूप में भी मनाते हैं। अब क्यूँ मनाते हैं इसके पीछे एक रोचक कहानी जो आज मैं आपको बताने वाला हूँ।

Image may contain: sky and outdoorवर्ष 1609 में, सिखों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने, सिखों के छठे गुरु श्री हरगोबिन्द साहिब जी को बंदी बना कर ग्वालियर के क़िले में कैद कर लिया, जहां पहले से ही 52 हिन्दू राजा कैद थे। संयोग से गुरु जी को कैद में डालने के बाद जहाँगीर की तबीयत खराब रहने लगी, संत साईं मियाँ मीर ने जहाँगीर को मशवरा दिया की अगर वो जल्द स्वस्थ होना चाहता है तो तुरंत गुरु को कैद से रिहा कर दे, जिसे जहाँगीर ने मान लिया। जब ये बात किले में कैद 52 हिन्दू राजाओं को पता चली तो उन्होने गुरु के आगे उनको भी रिहा करवाने की प्रार्थना की। गुरु हरगोबिन्द साहिब ने जहाँगीर के आगे शर्त रख दी की वो कैद से रिहा होना तभी स्वीकार करेंगे जब उनके साथ बाकी सभी 52 राजाओं को रिहा किया जाएगा।
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जहाँगीर ने गुरु कि बात सशर्त मान ली, और कहा कि कैद से गुरु जी के साथ केवल वही राजा बाहर जा सकेंगे जो सीधे गुरु जी का कोई अंग या कपड़ा पकड़े हुए होंगे। जहाँगीर ने बड़ी चालाकी से ये शर्त गुरु जी को बता दी वो सोच रहा था इस युक्ति से केवल दो या तीन राजा ही कैद से रिहा हो पाएंगे और उसे ज्यादा फ़र्क नहीं पड़ेगा।



गुरु हरगोबिन्द साहिब ने अपने लिए एक विशेष कुर्ता सिलवाया जिसे पकड़ कर सभी 52 राजा कैद से रिहा हो गए और जहाँगीर देखता ही रह गया, और इस प्रकार से जब गुरु हरगोबिन्द साहिब जी जब अमृतसर पहुंचे तो उस दिन वहाँ खूब रोशनी कि गयी और उस दिन से दिवाली कि रात को बंदी छोड़ दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। तभी से इस प्रथा कि शुरुआत हुई।

Saturday 3 November 2018

परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा

https://youtu.be/2nWbEbrovQo

Image may contain: 1 person, smilingआज भारत के प्रथम सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा के बलिदान दिवस पर सभी भारतवासी उन्हें नमन करते हैं।
उनकी वीरता, शौर्य व पराक्रम से भारतीय सैनिक व देश के नागरिक हमेशा प्रेरणा प्राप्त करते रहेंगे।

बलिदान के 71 वर्षो के बाद भी मेजर सोमनाथ शर्मा देश के स्वर्णिम इतिहास में सूर्य की किरणें कि भांति प्रकाशवान हैं।
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जब 27 अक्तूबर 1947 को हमारी भारतीय सेना कि पैदल सेना श्रीनगर मे पाकिस्तानी सेना से लडने के लिए गई तब मेजर सोमनाथ शर्मा हाथ के फ्रेचर के कारण हास्पिटल मे एडमिट थे।लेकिन भारत माता के इस लालअ के पास द्वितीय विश्वयुद्ध के लडने का अनुभव होने के साथ साथ युनिट के प्रति लगाव था उन्होंने हास्पिटल से डिसचार्ज लिया और अपने युनिट के सैनिकों के साथ पुनः एक बार फिर दुश्मनों को पराक्रम दिखाने और दुश्मनों के लहू से अपनी भारत माँ को तिलक लगाने श्रीनगर पहुंच गए।

Image may contain: outdoor*3 नवम्बर 1947 को कश्मीर के बडगाम इलाके में भारत माता की सेवा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। आज बडगाम में श्रीनगर एयरपोर्ट के बाहर मेजर सोमनाथ शर्मा का स्मारक बना है। हाल ही मैं मुझे वहां नमन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ*।
ऋणी राष्ट्र कि ओर से उनको शत शत नमन।
जय हिंद जय भारत।
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Wednesday 31 October 2018

लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल जनम जयंती

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आज पूरा देश लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जन्म जयंती मना रहा है। सरदार पटेल का जन्म 31 अक्तूबर 1875 को अपने ननिहाल गुजरात के नाडियाड में हुआ था, पर उनके जीवन के आरम्भिक कई सारे वर्ष आनंद ज़िले में "करमसद" नामक स्थान पर बीते।



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आज मैं आपको उनके मेमोरियल व उनके घर के दर्शन करवा रहा हूँ, जहां उनका लालन पालन हुआ। अप्रैल 2018 में मुझे इस पवित्र स्थान के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये तो आप सभी जानते हैं कि जब भारत को आज़ादी की सौगात मिली तो देश 565 रियासतों में बंटा हुआ था और फिरंगियों ने सभी रियासतों को अपनी इच्छा अनुसार भारत या पाकिस्तान में विलय होने की आज़ादी दे दी थी। सभी देशवासी सरदार पटेल के सदैव ऋणी रहेंगे क्योंकि उनकी दृढ़इच्छा शक्ति की वजह से ही सभी 565 फ़ूल एक टोकरी में एकत्रित हो पाए और हमारे स्वर्णिम भारत का निर्माण होना संभव हो पाया।








इस कठिन कार्य का निष्पादन निश्चित तौर पर अत्यंत कठिन था पर ये सरदार की दूर दृष्टि, सूझ बूझ और दृष्ट इच्छा शक्ति का ही परिणाम था के हमारे राष्ट्र का निर्माण हो पाया, वर्ना अंग्रेजों ने तो जाते जाते भी हमें प्रताड़ित करने में कोई कसर नही छोड़ी थी। इस महान विभूति को शत शत नमन।
जय हिंद।

Friday 19 October 2018

साईं बाबा समाधी के सौ वर्ष

आज मेरे गुरु शिरडी वाले साईं बाबा को समाधि लिए 100 वर्ष पूरे हो गए। रह रह कर मेरे जेहन में आज उस दिन का ख्याल आया रहा है जब मुझे पहली बार शिरडी से बुलावा आया। वो संस्मरण आपसे सांझा करना चाहता हूं।शिरडी की पहली यात्रा सन् 1996 में हुई। उन दिनों मेरे जेहन में एक अजीब सी खलबली मची हुई थी। शिरडी जाने को मैं इतना बेताब था कि एक दिन मैंने मुंबई जाने का निर्णय लिया और अपना काम खत्म करने के बाद उसी रात शिरडी जाने का कार्यक्रम बनाया। मैंने पता किया कि मुंबई से रात को 'दादर एक्सप्रेस' पकड़कर मनमाड तक जाया जा सकता है और वहाँ से शिरडी की दूरी मात्र 50 कि. मी. है, जोकि बस द्वारा तय की जाती है। मन में शिरडी पहुँचने की आस लिए रात को मैं 'दादर एक्सप्रेस' पर पहुँच गया। सीधे एक आरक्षित वातानुकूलित डिब्बे में घुस गया और परिचालक को अपना परिचय देकर बोला कि मुझे मनमाड जाना है।
No automatic alt text available.गाड़ी मुंबई में करीब रात 9:30 बजे छूटी और मनमाड रात को करीब दो बजे आना था। मेरी आँखों से तो नींद जैसे उड़ी हुई थी। हर स्टेशन पर लगता, कहीं मनमाड तो नहीं आ गया! कहीं ऐसा न हो कि मनमाड निकल ही जाए और मैं कहीं सोता ही रह जाऊँ! ऐसी आशंकाओं से मेरा मन भ्रमित हो रहा था। बस एक ही आस थी शिरडी पहुँचने की। इसी उधेड़-बुन में अंतत: मनमाड आ ही गया। रात्रि दो बजे आँखें नींद से भरी हुई थी। पूरे दिन मुंबई में घूमकर थकान भी बहुत हो गई थी। किसी रेलवे वाले से पूछा तो उसने बताया कि पहली बस सुबह सात बजे मिलेगी और तब तक मुझे विश्राम-गृह में आराम करने की सलाह दी। मनमाड एक बहुत बड़ा जंक्शन स्टेशन है। यहाँ से नासिक, पुणे, हैदराबाद, औरंगाबाद और दिल्ली के लिए लाइनें निकलती है। विश्राम-गृह स्टेशन के दूसरे कोने पर था। जैसे तैसे अंधेरे में मैंने विश्रामगृह को ढूँढ़ा और बिस्तर ढूँढ़कर पड़ गया। सुबह 6:30 बजे पुनः उठ गया और बस पकड़ने बस स्टैंड पर पहुँच गया। बस आई और मैं उसमें सवार हो गया।
Image may contain: 1 personमैं बहुत खुश था और सौभाग्यशाली समझ रहा था, क्योंकि थोड़ी ही देर में मैं शिरडी जो पहुँचने वाला था। अचानक मुझे किसी ने झकझोरकर उठाया, वह बस का कंडक्टर था, जिसके कंधे पर मैं सर रखकर सो गया था। शायद पिछली रात की थकान की वजह से ऐसा हो रहा था। मैं पहली बार महाराष्ट्र के छोटे शहरों से गुज़र रहा था, क्योंकि अभी तक तो मैं सिर्फ मुंबई ही घूमा था। यह अनुभव मेरे लिए थोड़ा अलग किंतु बढ़िया था। थोड़ी ही देर में बस शिरडी बस अड्डे पर पहुँच गई। उन दिनों बस स्टैंड मंदिर के बहुत पास था। मैं उतरकर अपना बैग और जूते जमा कराकर सीधे दर्शनों के लिए चल पड़ा। उन दिनों मंदिर का ढाँचा बहुत ही साधारण था। मंदिर का प्रवेश द्वार भी छोटा था। उन दिनों यहाँ भीड़ भी बहुत ज़्यादा नहीं होती थी। मैंने कुछ पुष्प खरीदे और दर्शनों के लिए लाइन में लग गया, वह भी अपना कैमेरा लेकर, उन दिनों मंदिर परिसर में तस्वीरें लेना वर्जित नहीं था।
मैंने बाबा की सुंदर तस्वीरें ली और उन्हें दिल से धन्यवाद दिया वहाँ बुलाने के लिए।
ये सिलसिला 1996 में शुरू हुआ जो अभी तक अविरल रूप से जारी है, बाबा बस ऐसे ही बुलाते रहें और हम अपनी हाज़री लगाते रहें।
विजयदशमी की शुभकामनाओं के साथ
जय साईं राम।

Saturday 6 October 2018

कोहिमा में कारगिल युद्ध नायक कैप्टन केनगुरुसे (महावीर चक्र) के युद्ध स्मारक पर नमन

पिछले सप्ताह अपनी कोहिमा यात्रा के दौरान मेरा ये लक्ष्य था की मुझे कोहिमा से करीब 22 किलोमीटर दूर एक गांव "नेरहेमा" जाना है, जहां एक महावीर, कारगिल युद्ध के अमर शहीद कैप्टेन केन्गुरसे का जन्म हुआ था। कारगिल युद्ध में अत्यंत असाधारण वीरता का प्रदर्शन करने के लिए उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया था। इसी स्थान पर उनकी शहादत को सदा सदा के लिए याद करता एक स्मारक बनाया गया है, जहां नमन करना मेरे लिए अत्यंत सौभाग्य की बात थी।

26 जून 1999 की वो रात को जब कारगिल युद्ध अपने चरम पर था, 16000 फ़ीट की ऊंचाई और तापमान था माइनस 16 डिग्री, जगह थी द्रास की "ब्लैक रॉक" नामक चोटी। 2 राजपूताना राइफल्स के शूरवीर दुश्मन पर जीत के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए मौत का सेहरा सर पर बांध तैयार बैठे थे। शत्रु के बंकर को तोड़ना अत्यंत आवश्यक हो गया था।

कैप्टेन केन्गुरसे ने इस खड़ी चट्टान पर चढ़ने के लिए अपने जूते खोल दिए ताकि शीघ्रता और सुगमता से चढ़ा जा सके। दुश्मन भयंकर गोलाबारी कर रहा था। ऊपर बैठा दुश्मन हमेशा फायदे की स्तिथि में होता है। पर हमारे सैनिकों के हौसले बुलंद थे। दुश्मन की गोलाबारी में घायल होने के बावजूद कैप्टेन केन्गुरसे ने अपनी बंदूक से दो पाकिस्तानियों को हलाक कर दिया और अपने कमांडो चाकू से दो अन्य पाकिस्तानियों को मौत के घाट उतार कर अपनी पलटन की विजय सुनिश्चित की। पर स्वयं की जान भारत माता पर कुर्बान कर सेना की सर्वोच्च परम्पराओं का पालन किया।

15 जुलाई 1974 को नेरहेमा, कोहिमा ज़िला, नागालैंड में इनका जन्म हुआ। 1994 से 1997 तक कोहिमा में अध्यापन का कार्य किया। चाहते तो अपना जीवन सरलता व आराम से अपने क्षेत्र में जी सकते थे पर देश की सेना में जा कर देश की सेवा को प्राथमिकता दी। ऐसे शूरवीर को मेरा शत शत नमन। जय हिन्द।




Saturday 1 September 2018

सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल का टैंक जिसमें लड़ते लड़ते वो शहीद हो गए थे

सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल, परमवीर चक्र।
रेजिमेंट : 17, पूना हॉर्स
(कृपया पूरा अवश्य पढ़ें)
जुलाई मास में मुझे महाराष्ट्र के अहमदनगर में भारतीय सेना द्वारा निर्मित "टैंक म्यूजियम" में जाने का अवसर मिला, जहां मुझे कई प्रकार के टैंक देखने को मिले, पर मेरी आंखें केवल एक ही टैंक को ढूंढ रही थी, और वो था, सबसे छोटी आयु में परमवीर चक्र से सम्मानित किए जाने वाले शूरवीर, सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल का, जिसमें लड़ते लड़ते वो शहीद हो गए थे।
इस असाधारण वीरता का प्रदर्शन कर के वो हमेशा हमेशा के लिए हर भारतीय के दिल में अपनी जगह बना गए। ड्यूटी पर तैनात अधिकारी से जब मैंने उस टैंक के बारे में जानकारी माँगी तो बताया गया कि वो टैंक अरुण खेत्रपाल जी की रेजीमेंट "पूना हॉर्स" के साथ ही रहता है और पूना हॉर्स इसका रख रखाव बहुत ही श्रद्धा से रखती है। ये जानकारी प्राप्त करने के बाद मेरा मन बेताब हो उठा कि काश ! मुझे भी किसी प्रकार से महावीर अरुण खेत्रपाल जी का वो टैंक देखने का सौभाग्य प्राप्त हो।
वो कहते हैं ना, जहां चाह वहां राह। चंद रोज़ बाद ही मुझे पूना हॉर्स के ठिकाने का पता चल गया और मुझे उस टैंक को देखने का न केवल अवसर मिला बल्कि अरुण खेत्रपाल जी के जीवन से जुड़ी अनेक महत्वपूर्ण बातों की जानकारी मिली। ये भी पता चला की आज भी पूना हॉर्स रेजिमेंट कितनी शिद्दत व सम्मान के साथ अपने शहीद साथियों की स्मृतियों को संजो कर रख रहें हैं और कैसे आज के जवानों को उनकी शौर्य गाथाओं से प्रेरित कर रहें हैं। अब आपको मैं उस 21 वर्षीय नौजवान की अमूल्य वीर गाथा से अवगत करवाता हूँ।
एक 21 वर्ष का नौजवान फौज़ी अफ़सर ट्रेनिंग के बाद जिसे सेना में आए हुए अभी 6 महीने भी पूरे नही हुए थे वो युद्ध में शामिल होने निकल पड़ा। 1971 का भारत पाकिस्तान का युद्ध चरम पर था, दिल्ली के रहने वाले इस नौजवान अधिकारी का नाम था अरुण खेत्रपाल ।
बसंतर नदी के नजदीक शकरगढ़ सेक्टर में अपने सेनचुरियन टैंक जिसका नाम था "फामागुस्ता" पर सवार ये नौजवान अधिकारी अपना शौर्य सिद्ध करने के लिए बेताब था। होता भी क्यों नही आखिरकार सेना में जा देश की सेवा करना इन्होंने अपने पुरखों से ही तो सीखा था। इनके पिता ब्रिगेडियर मदन लाल खेत्रपाल सेना के इंजीनियर कोर में कार्यरत थे। अरुण के दादा और पड़दादा भी सेना में सेवारत रह चुके थे। अरुण खेत्रपाल के टैंक का नाम फामागुस्ता क्यों था, इसके पीछे भी एक कहानी है, फामागुस्ता असल में सायप्रस के पूर्वी तट पर बसा एक नगर है जहां 1944 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूना हॉर्स तैनात थी।
16 दिसंबर 1971 का वो दिन जब पाकिस्तानी सेना को रौंदता हुआ अरुण खेत्रपाल अपने फामागुस्ता टैंक से शत्रु के नाक में दम किए हुआ था। अभी तक इस शूरवीर ने पाकिस्तान के 10 पैटन टैंकों को खत्म कर दिया था। इस दौरान उनके टैंक पर पहला हमला हुआ जिसे वो झेल गए, टैंक को थोड़ा नुकसान भी हुआ, उन्हें वापस आने के लिए कहा गया पर इन्होंने जवाब दिया "अभी मेरी बन्दूक चल रही है, और जब तक ये चल रही है, मैं वापस नही आऊंगा' देशभक्ति का जुनून सर चढ़ कर बोल रहा था। झल्लाये दुश्मन ने थोड़ी ही देर बाद उनके टैंक पर गोला दाग पुनः हमला किया, हमला इतना तीव्र था की, वो गोला टैंक की लगभग 6 इंच मोटी लोहे की परत को काटते हुआ सीधे अरुण को जा लगा और वो वीरगति को प्राप्त हो गए। उन्होंने भारत माता की आन, बान और शान के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान कर दिया।
टैंक के उस क्षतिग्रस्त हिस्से को जब मैंने अपने हाथों में उठा कर देखा तो मेरे रौंगटे खड़े हो गए और मैं सोचने लगा कि इतने मोटे लोहे को भला एक गोला कैसे काट सकता है। पर नियति को यही मंज़ूर था। इसी असाधरण वीरता के प्रदर्शन की वजह से ही इस शूरवीर की जांबाज़ी के किस्से आज भी हर भारतीय के जेहन में ताज़ा हैं।
शहीद अरुण खेत्रपाल के टैंक को देखते ही पहले तो सैलूट किया फिर उस टैंक पर लगी चार तस्वीरों के बारे में जाना वो तीन सैनिक उस समय अरुण खेत्रपाल के साथ टैंक में मौजूद थे। चौथी तस्वीर शहीद अरुण खेत्रपाल की थी। हमले में सबसे पहले रेडियो ऑपरेटर नंद सिंह वीरगति को प्राप्त हुए और फिर अरुण खेत्रपाल। उनके बाकी दो साथी टैंक चालक प्रयाग सिंह और गनर नत्थू सिंह बुरी तरह घायल हो गए पर किसी तरह बच गए।
17 दिसंबर 1971 को जम्मू के समीप सांभा में अरुण खेत्रपाल का अंतिम संस्कार कर दिया। 26 दिसंबर 1971 को जब उनकी अस्थियां उनके परिवार को सौंपी गई, तो उस उसी समय उनके परिवार वालों को उनकी शहादत के बारे में पता चला। 6 फुट 2 इंच लंबे इस नौजवान को सेना ने अपने अदम्य साहस के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया। 26 जनवरी 1972 को तत्कालीन राष्ट्रपति वी वी गिरी ने ये सम्मान शहीद अरुण खेत्रपाल जी की माता जी को प्रदान किया।
एन डी ए, पुणे में परेड ग्राउंड का नाम अरुण खेत्रपाल के नाम पर रखा गया है। यहीं एन डी ए में अरुण ने सेना का प्रशिक्षण प्राप्त किया था।
मुझे उनके भाई श्री मुकेश खेत्रपाल से मुलाकात का सौभाग्य मिल चुका है। मेरी पुस्तक "देशभक्ति के पावन तीर्थ" का विमोचन उनके हाथों हुआ है। इस विमोचन में कारगिल शहीद वीर चक्र से सम्मानित लेफ्टिनेंट विजयंत थापर के माता पिता कर्नल थापर और श्रीमती तृप्ति थापर भी शामिल हुए थे। उन्होंने बताया की विजयंत, अरुण खेत्रपाल के जीवन से अत्यंत प्रभावित थे और विजयंत अक्सर दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में बने अरुण खेत्रपाल के घर के आगे से निकलते थे और उस अमर शहीद को श्रधांजलि दिया करते थे। कारगिल युद्ध में विजयंत ने देश पर अपनी जान कुर्बान कर कहीं न कहीं अरुण खेत्रपाल के जीवन का सच्चा अनुसरण ही किया।
बॉलीवुड ने शहीद अरुण खेत्रपाल के जीवन पर फ़िल्म बनाने का निर्णय लिया है जो वाक़ई स्वागत योग्य है। अमर शहीद अरुण खेत्रपाल को शत शत नमन। मेरा आप सभी से अनुरोध है की इस पोस्ट को अपने मित्रों व रिश्तेदारों के साथ अवश्य सांझा करें।
जय हिन्द।