Friday 19 October 2018

साईं बाबा समाधी के सौ वर्ष

आज मेरे गुरु शिरडी वाले साईं बाबा को समाधि लिए 100 वर्ष पूरे हो गए। रह रह कर मेरे जेहन में आज उस दिन का ख्याल आया रहा है जब मुझे पहली बार शिरडी से बुलावा आया। वो संस्मरण आपसे सांझा करना चाहता हूं।शिरडी की पहली यात्रा सन् 1996 में हुई। उन दिनों मेरे जेहन में एक अजीब सी खलबली मची हुई थी। शिरडी जाने को मैं इतना बेताब था कि एक दिन मैंने मुंबई जाने का निर्णय लिया और अपना काम खत्म करने के बाद उसी रात शिरडी जाने का कार्यक्रम बनाया। मैंने पता किया कि मुंबई से रात को 'दादर एक्सप्रेस' पकड़कर मनमाड तक जाया जा सकता है और वहाँ से शिरडी की दूरी मात्र 50 कि. मी. है, जोकि बस द्वारा तय की जाती है। मन में शिरडी पहुँचने की आस लिए रात को मैं 'दादर एक्सप्रेस' पर पहुँच गया। सीधे एक आरक्षित वातानुकूलित डिब्बे में घुस गया और परिचालक को अपना परिचय देकर बोला कि मुझे मनमाड जाना है।
No automatic alt text available.गाड़ी मुंबई में करीब रात 9:30 बजे छूटी और मनमाड रात को करीब दो बजे आना था। मेरी आँखों से तो नींद जैसे उड़ी हुई थी। हर स्टेशन पर लगता, कहीं मनमाड तो नहीं आ गया! कहीं ऐसा न हो कि मनमाड निकल ही जाए और मैं कहीं सोता ही रह जाऊँ! ऐसी आशंकाओं से मेरा मन भ्रमित हो रहा था। बस एक ही आस थी शिरडी पहुँचने की। इसी उधेड़-बुन में अंतत: मनमाड आ ही गया। रात्रि दो बजे आँखें नींद से भरी हुई थी। पूरे दिन मुंबई में घूमकर थकान भी बहुत हो गई थी। किसी रेलवे वाले से पूछा तो उसने बताया कि पहली बस सुबह सात बजे मिलेगी और तब तक मुझे विश्राम-गृह में आराम करने की सलाह दी। मनमाड एक बहुत बड़ा जंक्शन स्टेशन है। यहाँ से नासिक, पुणे, हैदराबाद, औरंगाबाद और दिल्ली के लिए लाइनें निकलती है। विश्राम-गृह स्टेशन के दूसरे कोने पर था। जैसे तैसे अंधेरे में मैंने विश्रामगृह को ढूँढ़ा और बिस्तर ढूँढ़कर पड़ गया। सुबह 6:30 बजे पुनः उठ गया और बस पकड़ने बस स्टैंड पर पहुँच गया। बस आई और मैं उसमें सवार हो गया।
Image may contain: 1 personमैं बहुत खुश था और सौभाग्यशाली समझ रहा था, क्योंकि थोड़ी ही देर में मैं शिरडी जो पहुँचने वाला था। अचानक मुझे किसी ने झकझोरकर उठाया, वह बस का कंडक्टर था, जिसके कंधे पर मैं सर रखकर सो गया था। शायद पिछली रात की थकान की वजह से ऐसा हो रहा था। मैं पहली बार महाराष्ट्र के छोटे शहरों से गुज़र रहा था, क्योंकि अभी तक तो मैं सिर्फ मुंबई ही घूमा था। यह अनुभव मेरे लिए थोड़ा अलग किंतु बढ़िया था। थोड़ी ही देर में बस शिरडी बस अड्डे पर पहुँच गई। उन दिनों बस स्टैंड मंदिर के बहुत पास था। मैं उतरकर अपना बैग और जूते जमा कराकर सीधे दर्शनों के लिए चल पड़ा। उन दिनों मंदिर का ढाँचा बहुत ही साधारण था। मंदिर का प्रवेश द्वार भी छोटा था। उन दिनों यहाँ भीड़ भी बहुत ज़्यादा नहीं होती थी। मैंने कुछ पुष्प खरीदे और दर्शनों के लिए लाइन में लग गया, वह भी अपना कैमेरा लेकर, उन दिनों मंदिर परिसर में तस्वीरें लेना वर्जित नहीं था।
मैंने बाबा की सुंदर तस्वीरें ली और उन्हें दिल से धन्यवाद दिया वहाँ बुलाने के लिए।
ये सिलसिला 1996 में शुरू हुआ जो अभी तक अविरल रूप से जारी है, बाबा बस ऐसे ही बुलाते रहें और हम अपनी हाज़री लगाते रहें।
विजयदशमी की शुभकामनाओं के साथ
जय साईं राम।

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