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जले हुए पुस्तकालय का दृश्य |
प्रिय मित्रों
नव वर्ष की हार्दिक बधाई के साथ इस
साल का पहला ब्लॉग आप सभी को भेंट कर रहा हूँ. आज का ब्लॉग आपको भारत वर्ष के
स्वर्णिम इतिहास से अवगत करवा रहा है और मुझे यकीन है, इस जानकारी से आपको इस देश
की पुण्य धरती पर पैदा होने पर अवश्य ही गर्व महसूस होगा. जी हाँ एक ज़माने में जब
विश्व के बड़े बड़े देशों का आस्तित्व भी सामने नहीं आया था, तब तक भारत “विश्व गुरु”
का ख़िताब प्राप्त कर चुका था. मैं आपको ले कर चल रहा हूँ चौथी सदी में जब सम्पूरण
विश्व में शिक्षा के केवल तीन विश्व विद्यालय थे और वो भी भारत वर्ष में, जिनका
नाम था तक्षशिला (विभाजन के बाद से ये पाकिस्तान में चला गया है), नालंदा और
विक्रमशिला. उस समय बिहार को मगध बोलते थे और मगध की राजधानी थी राजगीर. इसी
राजगीर में निर्माण हुआ “नालंदा विश्वविद्यालय” का जो आज के पटना से 120 किलोमीटर
की दूरी पर स्थित है. इसका निर्माण मगध के राजा कुमार गुप्त ने आज से लगभग 2500
वर्ष पूर्व 413 ई में करवाया. यहाँ पहले महावीर जैन आए और फिर गौतम बुद्ध यहाँ
पधारे. सम्राट अशोक ने भी यहाँ कई सारे मंदिरों का निर्माण करवाया. UNESCO विश्व
धरोहर में गिने जाने वाले शिक्षा के महान केंद्र रहे “नालंदा” में आपका स्वागत है.
इस शिक्षा केंद्र का महत्व इसी से
पता चलता है की एक समय में यहाँ पढने वाले विद्यार्थियों की संख्या 10000 होती थी
और पढ़ाने वाले गुरुओं की संख्या 1500 होती थी. यहाँ पढाई करने के लिए छात्र
तिब्बत, चीन, इंडोनेशिया, कोरिया और मध्य एशिया के कई सारे देशों से आते थे.
शिक्षा निशुल्क थी, पर यहाँ प्रवेश पाने के लिए परीक्षा देनी पड़ती थी और अमूमन 100
में से केवल 10 विद्यार्थी ही इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो पाते थे. यहाँ वैदिक
शास्त्रों, बौध धर्म इत्यादि की शिक्षा दी जाती थी, जिनमें कुल 108 विषय होते थे. पढ़ाने
के लिए संस्कृत और पाली भाषा का प्रयोग होता था. छात्रों को यहाँ के नियमों का
पालन करना आवश्यक था जैसे की झूठ न बोलना, चोरी न करना, ब्रह्मचार्य का पालान करना
और नशा न करना इत्यादि.
यहाँ आने वालों में एक प्रमुख नाम
चीन के हयुनसेंग का था, जिन्होंने दुनिया को इस महान संस्था के तौर तरीकों से अवगत
करवाया. जब वो वापिस गए तो यहाँ से ढेर सारी किताबें अपने साथ चीन ले गए. वैसे
यहाँ से कई सारी किताबें तिब्बत भी गयी जिन्हें हमारे देश के सबसे बड़े घुम्मकड़
पंडित राहुल संकृत्यायन 1914 में वहां से कई सारे खच्चरों पर लाद कर वापस लाए. इन
पुस्तकों को लाने के लिए उन्होंने कई बार तिब्बत की यात्रा की. इतना पुनीत कार्य
करने के लिए उनको नमन तो बनता ही है. तिब्बत के बौद्ध मठों से लाए गए सामानों,
जिनमे कई सारे हस्त लिखित ग्रन्थ भी हैं, उनको आप पटना में बने राजकीय संग्रहालय
में देख सकते हैं.
नालंदा विश्व विद्यालय के प्रथम
कुलपति थे बौध धर्म के महान दार्शनिक “नागार्जुन जी”. कहा जाता है उन्हें रासायनिक
क्रियाओं द्वारा सोना बनाने की विधि ज्ञात थी. समय समय पर कई सारे राजाओं ने इस
विश्व विद्यालय के निर्माण में अपना सहयोग किया जिनमे प्रमुख नाम थे राजा
कुमारगुप्त, हर्ष, देवपाल और अशोक. वक़्त गुजरता गया और ये स्थान पूरी तरह से धरती
के गर्भ में समा गया फिर वर्ष 1915 में यहाँ खुदाई का काम चालू हुआ जिसमे हमारे
गौरव का ये महान प्रतीक हम सब के समक्ष आ पाया.
अब मैं आपको सबसे महत्वपूरण जानकारी
दे रहा हूँ और वो है यहाँ बने पुस्तकालय की, जो की तीन इमारतों में विभक्त था और
उनके नाम थे रत्नोद्धि, रत्नसागर और रत्नरंजक. इन तीनों पुस्तकालयों में कुल 90 लाख पुस्तकें
थी जो विश्व में एक साथ कहीं भी नहीं थी. चूँकि उस समय कागज़ का अविष्कार नहीं हुआ
था इसीलिए पुस्तकें ताम्रपत्र पर हस्तलिखित रूप में उपलब्ध थीं. वर्ष 1199 में
तुर्क आक्रमणकारी “बख्तियार खिलजी” ने यहाँ हमला कर दिया और यहाँ के पुस्तकालयों
को आग के हवाले कर दिया. इतिहास गवाह है के पुस्तकों की संख्या अत्यधिक होने की
वजह से वो छह महीने तक जलती रहीं, ये केवल पुस्तकें नहीं जली बल्कि इनके साथ भारत
वर्ष का स्वर्णिम भविष्य भी जल कर ख़ाक हो गया. जिस ज्ञान, जिन पुस्तकों की बदौलत
हम आधुनिक युग में अपने आप को विश्व गुरु के तौर पर प्रमाणित कर सकते थे, वो उम्मीदें
उसी अग्नि में स्वाह हो गई. भला हो उन लोगों का जिन्होंने प्रयास कर के स्वामी
विवेकानंद जी को 1893 में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में शिरकत करने भेजा और वहां
उनके ज्ञान के लोहे को देख दुनिया सोचने पर मजबूर हो गयी के वाकई भारत ज्ञानियों
की भूमि रहा है. ये बात तो सत्य है की बख्तियार खिलजी द्वारा किए गए नुक्सान की
भरपाई आज तक नहीं हो पाई है.
आशा है ये सब जानने के बाद आप
निश्चित तौर पर गौरान्वित महसूस कर रहे होंगे. मुझे उम्मीद है आप कभी न कभी इस
महान स्थल के दर्शनों के लिए अवश्य जायेंगे.